भगवान महावीर स्वामी और उनकी अहिंसा

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भगवान महावीर स्वामी और उनकी अहिंसा

- डॉ. आशीष जैन आचार्य शाहगढ़, सागर

(राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त)

संयुक्त मंत्री, अ.भा.दि. जैन शा​स्त्रिपरिषद्

भारत की इस पावन भूमि पर तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म हुआ। वे जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर हुए हैं। उन्होंने संसार को हिंसा से हटाकर अहिंसा में लगाया है। उनका जीवन अहिंसक शैली का सर्वोत्तम उदाहरण है। उनका वृहत् दृ​ष्टिकोण जीवमात्र के प्रति रहा है। उन्होंने अपनी ​शिक्षाओं में सर्वप्रथम अहिंसा को ही समाहित किया है। जो अहिंसा का परिपालन करता है उसका जीवन निर्मल और पवित्र बनता है, जैसा कि उन्होंने स्वयं के जीवन को बनाया है।  पूज्य जिनेन्द्र प्रसाद वर्णीजी ने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष में लिखा है -  जैन धर्म अहिंसा प्रधान है, पर अहिंसा का क्षेत्र इतना संकुचित नहीं है जितना कि लोक में समझा जाता है : इसका व्यापार बाहर व भीतर दोनों ओर होता है। बाहर में तो किसी भी छोटे या बड़े जीव को अपने मन से या वचन से या काय से, किसी प्रकार की भी हीन या अधिक पीड़ा न पहुँचाना तथा उसका दिल न दु:खाना अहिंसा है और अंतरंग में राग द्वेष परिणामों से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थित होना अहिंसा है। बाह्य अहिंसा को व्यवहार और अंतरंग को निश्चय कहते हैं। वास्तव में अंतरंग में साम्यता आये बिना अहिंसा संभव नहीं और इस प्रकार इसके अति व्यापक रूप में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं इसीलिए अहिंसा को परम धर्म कहा जाता है। जल थल आदि में सर्वत्र ही क्षुद्र जीवों का सद्भाव होने के कारण यद्यपि बाह्य में पूर्ण अहिंसा पालन करना असंभव है, पर यदि अंतरंग में साम्यता और बाहर में पूरा-पूरा यत्नाचार रखने में प्रमाद न किया जाय तो बाह्य जीवों के मरने पर भी साधक अहिंसक ही रहता है।

            अ​हिंसा के वृहत् दृ​ष्टिकोण की परिभाषा दिगम्बर जैनाचार्य श्री अमृतचन्द स्वामी ने अपने ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्ध उपाय में कही है -

अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।

तेषामेवोत्प​त्तिर्हिंसेति, जिनागमस्य संक्षेप:।।44।।[1]

            रागादि भावों का प्रकट न होना ही अहिंसा है। उन रागादि भावों का प्रकट होना ही हिंसा है। ऐसा जैन सिद्धान्त का सार है।

हिंदू शास्त्रों की दृष्टि से अहिंसा का अर्थ है -

अंहिसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह:। [2]

            सर्वदा तथा सर्वदा (मनसा, वाचा और कर्मणा) सब प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव।

            भारत के राष्ट्रपिता श्रीमहात्मा गांधीजी ने तो जिस अहिंसा का प्रचार किया वह अत्यंत महत्वपूर्ण थी। उन्होंने कहा कि उनका विरोध असत् से है, बुराई से नहीं। उनसे आवृत व्यक्ति सदा प्रेम का अधिकारी है, हिंसा का कभी नहीं। - महात्मा गाँधी

            अहिंसा हमारे समय के महत्वपूर्ण राजनीतिक और नैतिक प्रश्नों का उत्तर है; मानव जाति के लिए उत्पीड़न और हिंसा का सहारा लिए बिना उत्पीड़न और हिंसा पर काबू पाने की आवश्यकता।

- मार्टिन लूथर किंग जूनियर (1929-1968)

            अहिंसा का उद्देश्य एक मंजिल बनाना है, एक मजबूत और नई मंजिल, जिसके नीचे हम अब और नहीं डूब सकते। एक ऐसा मंच जो यातना, शोषण, जहरीली गैस, ईर्ष्या, द्वेष इन सब से बहुत ऊपर हो। मनुष्य को खड़े होने के लिए एक सभ्य स्थान दें।                             - जोन बेज़

            अहिंसा का विभाजन आचार्यों ने दो प्रकार से किया है। एक अहिंसा स्थूल रूप से है और एक सूक्ष्म रूप से हैं। दोनों प्रकार की अहिंसा साधारण गृहस्थ और मुनि के जीवन को परिल​क्षित करती है। इसे हम अणुव्रत और महाव्रत के नाम से जानते हैं। अणुव्रत और महाव्रत क्रमश: पाँच-पाँच हैं। अणुव्रत हैं - अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरमाणुव्रत। महाव्रत हैं - अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत।  हम यहाँ दोनों प्रकार के व्रतों में से अहिंसा अणुव्रत और महाव्रत की चर्चा यहाँ कर रहे हैं, जिसके परिपालन से ही सभी अणुव्रत और महाव्रतों को पालने की श​क्ति का संचार होता है।

अहिंसा अणुव्रत का लक्षण - जो  मन-वचन-काय से ,कृत-कारित-अनुमोदना से त्रस(दो इ​न्दि्रय से लेकर पाँच इ​न्दि्रय तक) जीवों का घात नहीं करता है उसके अहिंसाणुव्रत होता है।[3]

अहिंसा महाव्रत का लक्षण - सभी प्रकार से एकेन्दि्रय से लेकर पंचे​न्दि्रय तक के जीवों की रक्षा करता है उनका घात नहीं करता है उसके अ​हिंसा महाव्रत होता है। [4]        

            अणुव्रत महाव्रतों तक पहुँचने का मार्ग है। अणुव्रतों का पालन करता हुआ जीव प्रतिमाओं को ग्रहण करता है और महाव्रत की ओर अग्रसर होता है। महाव्रत आध्या​त्मिक उन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। महाव्रत ही है जो आत्मा को परमात्मा बना सकते हैं। इन महाव्रतों में अहिंसा महाव्रत सर्वा​धिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि अहिंसा के बिना कोई भी महाव्रत नहीं पल सकता है। इसलिए जैन दर्शन कहता है कि श्रावक और साधु, दोनों का प्रथम कर्तव्य है कि अहिंसा धर्म का पालन करें। अहिंसा एव प्रथम: कर्तव्य:।

 

जब भी हम अहिंसा धर्म का पालन करते हैं, व्रत पालन करते हैं तो उनमें दोष लगना सहज है। यदि दोष यदा-कदा लगता है, भूलवश लगता है, अज्ञानतावश लगता है तो अतिचार की कोटि में आता है जिसका संशोधन किया जा सकता है परंतु जब ब्रत पालन में बार-बार गलती की जाए, प्रमाद पर प्रमाद किया जाए, दोष पर दोष लगाए जाए तब वे अनाचार की कोटि में आते हैं अर्थात् उस समय अहिंसा व्रत भंग हो जाता है। यहाँ आगे हम अहिंसा व्रत के अतिचारों की चर्चा करते हैं -

अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार - अहिंसाणुव्रत के पालन में अतिचार लगते हैं। इन अतिचारों से बचना आवश्यक है। ये अति​चार निम्न हैं -

बंधवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः।[5]

             बन्ध, वध, छेद, अतिभाररोपण, अन्नपान का निरोध ये अहिंसाणु व्रत के पाँच अतिचार हैं। ये अतिचार प्रत्यक्ष रूप से दिखते हैं, लोग जान रहे हैं कि आप अ​हिंसाव्रत में दोष लगा रहे हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से बंधादि करने का भाव या करवाना ये भी अहिंसा व्रत में दूषण लगाते हैं। आचार्य कहते हैं - मंत्रादि के द्वारा भी किया गया बंधनादिक रस्सी वगैरह से किये गये बंध की तरह अतिचार होता है। इसलिए उस प्रकार से यत्न पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिस प्रकार से कि व्रत मलिन न होवे।[6] अहिंसा धर्म के पालन के लिए आवश्यक है कि वह अहिंसा अणुव्रत और महाव्रत की भावनाओं का  पालन करें। व्रतों को पालना कैसे हैं? इस पर दृ​ष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि व्रतों की भावनाएँ व्रतों के पालन के तरीकों को सिखाती है, उसकी प्रक्रिया बताती है, दोषों से बचाती है।

अहिंसाणुव्रत की भावनाएँ -  हिंसायां तावत्, हिंस्री हि नित्योद्वेजनीयः सततानुबद्धवैरश्च इह च वधबंधपरिक्लेशादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान्।..एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम्।[7]

            हिंसा में यथा-हिंसक निरंतर उद्वेजनीय हैं' वह सदा वैर को बाँधे रहता है, इस लोक में वध, बंध और क्लेश आदि को प्राप्त होता है, तथा परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है, और गर्हित भी होता है, इसलिए हिंसा का त्याग श्रेयस्कर है।..इस प्रकार हिंसादि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।

 अहिंसा महाव्रत की भावनाएँ -  अहिंसा महाव्रत पालन करने  के लिए पाँच भावनाएँ कही गयी हैँ। ये भावनाएँ दिग्द​र्शित करती है कि अहिंसा महाव्रत पालन कैसे करना है? जो अहिंसा महाव्रत को पालता है, वह इन भावनाओं को भी पालता है।

वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानिपञ्च ॥4॥[8]

           वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन (अर्थात् देख शोधकर भोजन पान ग्रहण करना) ये अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएँ हैं।

अहिंसा व्रत का पालन करने का फल - अहिंसा व्रत  का फल महान है। इसके फलस्वरूप जीव अनंत सुख को प्राप्त करता है। इहलौकिक और पारलौकिक सुख को प्राप्त करता है। जिनागम में इसके ​फल के विषय में कहा  गया है।

          स्वरूप काल तक पाला जाने पर भी यह अहिंसा व्रत प्राणी पर महान् उपकार करता है। जैसे कि शिंशुमार हृद में फेंके चांडाल ने अल्पकाल तक ही अहिंसाव्रत पालन किया था। वह इस व्रत के महात्म्य से देवों के द्वारा पूजा गया।[9]

          अहिंसा ही तो जगत् की माता है क्योंकि समस्त जीवों का परिपालन करने वाली है; अहिंसा ही आनंद की संतति है; अहिंसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है। जगत् में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब इस अहिंसा ही में हैं।[10]

             पर्वतों सहित स्वर्णमयी पृथिवी का दान करने वाला भी पुरुष एक जीव की रक्षा करने वाले पुरुष के समान कहाँ से हो सकता है?[11]

            एक जीव दया के द्वारा ही चिंतामणि की भाँति अन्य सकल धार्मिक क्रियाओं के फल की प्राप्ति हो जाती है ॥1॥ अयुष्मान् होना, सुभगपना, धनवानपना, सुंदर रूप, कीर्ति आदि ये सब कुछ मनुष्य को एक अहिंसा व्रत के माहात्म्य से ही प्राप्त हो जाते हैं ॥2॥[12]

अहिंसाव्रत की महानता - आचार्यों ने जिनागम में अहिंसाव्रत की महानता कही है। यहाँ पर कुछ उद्धरण प्रस्तुत हैं -

            इस जगत् में अणु से छोटी दूसरी वस्तु नहीं है और आकाश से भी बड़ी कोई चीज नहीं है। इस प्रकार अहिंसा व्रत से दूसरा कोई बड़ा व्रत नहीं है ॥784॥ यह अहिंसा सर्व आश्रमों का हृदय है, सर्व शास्त्रों का गर्भ है और सर्व व्रतों का निचोड़ा हुआ सार है ॥790॥[13]

            अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है। ऋषियों ने प्रायः उसकी महिमा के गीत गाये हैं। सच्चाई की श्रेणी उसके पश्चात् आती है।[14]

            इन पाँचो व्रतों में अहिंसा व्रत को (सूत्रकार ने) प्रारंभ में रखा है, क्योंकि वह सब में मुख्य है। धान्य के खेत के लिए जैसे उसके चारों और काँटों का घेरा होता है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत उसकी रक्षा के लिए हैं।[15]

            आत्म परिणामों का हनन करने से असत्यादि सब हिंसा ही हैं। असत्य वचन आदि ग्रहण तो केवल शिष्य जनों को उस हिंसा का बोध कराने मात्र के लिए है।[16]

            अहिंसा महाव्रत सत्यादिक अगले 4 महाव्रतों का तो कारण है, क्योंकि वे बिना अहिंसा के नहीं हो सकते। और शीलादि उत्तर गुणों की चर्या का स्थान भी अहिंसा ही है ॥7॥ वही तो समय अर्थात् उपदेश का सर्वस्व है, और वही सिद्धांत का रहस्य है, जो जीवों के समूह की रक्षा के लिए हो। एवं वही भाव शुद्धिपूर्वक दृढ़व्रत है ॥30॥ समस्त मतों के शास्त्रों में यही सुना जाता है, कि अहिंसा लक्षण तो धर्म है और इसका प्रतिपक्षी हिंसा करना ही पाप है ॥31॥ तप, श्रुत, यम, ज्ञान, ध्यान और दान करना तथा सत्य, शील व्रतादिक जितने भी उत्तम कार्य हैं उन सबकी माता एक अहिंसा हो है ॥42॥[17]

उपसंहार - भगवान महावीर स्वामी ने अपने जीवन को सर्वोत्तम बनाया और सभी को सर्वोत्तम बनने की प्रेरणा दी है। उनके द्वारा बताया गया अहिंसा का मार्ग अत्यंत सरल और सहज है। जो मार्ग पर चलता है, वह एक न एक दिन परमात्मा बन जाता है उसे प्राप्त कर लेता है। अहिंसा मानव जीवन सबसे बड़ी देन है। अहिंसा न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक है। जब हम दूसरों के प्रति दया और सहानुभूति रखते हैं, तब न केवल हम उनका भला करते हैं, बल्कि अपने जीवन में भी शांति और संतोष का अनुभव करते हैं। हिंसा के बजाय अहिंसा अपनाने से समाज में शांति, सद्भाव और समृद्धि का माहौल बनता है। यह हमें सिखाता है कि शारीरिक बल से किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता, बल्कि संवाद, समझ और सहयोग से ही हम सकारात्मक परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।

            अंत में, अहिंसा केवल बाहरी व्यवहार का नहीं, बल्कि एक आंतरिक अवस्था का नाम है, जिसमें हम अपने विचारों, शब्दों और भावों में भी संवेदनशीलता और मृदुता बनाए रखते हैं। यही अहिंसा की सच्ची शक्ति है, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन को सुखी और संतुलित बनाती है, बल्कि पूरे समाज को एकता और शांति की दिशा में आगे बढ़ाती है।

 

 

 

 

[1] पुरुषार्थसिद्धि-उपाय/44

[2] व्यासभाष्य, योगसूत्र 2। 30

[3] संकल्पात् कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वाम्।

न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणः ॥53॥

[4] कायेंदियगुणमग्गण कुलाउजोणीसु सव्वजीवाणं।

णाऊण य ठाणादिसु हिंसादिविवज्जणमहिंसा ॥5॥

एइंदियादिपाणा पंचविधावज्जभीरुणा सम्मं।

ते खलु ण हिंसितव्वा मणवचिकायेण सव्वत्थ ॥289॥

[5] तत्त्वार्थसूत्र 7/25

[6] मंत्रादिनापि बंधादिः कृतो रज्ज्वादिवन्मलः।

तत्तथा यत्नीयं स्यान्न यथा मलिनं व्रतं ॥19॥  सागार धर्मामृत अधिकार 4/19

[7] सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/9,347/3

[8] तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/4, (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 337); ( चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 31)

[9] पाणो वि पाडिहेरं पत्तो छूडो वि संसुमारहदे।

एगेण एक्कदिवसक्कदेण हिंसावदगुणेण।।  भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 822

[10] अहिंसैव जगंमाताऽहिंसैवानंदपद्धतिः।

अहिंसैव गतिः साध्वी श्रीरहिंसैव शाश्वती ॥  ज्ञानार्णव अधिकार 8/32

[11] चामीकरमयीमूर्वीददानः पर्वतैः सह।

एकजीवाभयंनून ददानस्य समः कृतः॥  अमितगति श्रावकाचार अधिकार 11/5

[12] “एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः।

परं फलं तु सर्वत्र कृषेश्चिंतामणेरिव ॥1॥

आयुष्यमान् सुभगः श्रीमान् सुरूपः कीर्तिमान्नरः।

अहिंसाव्रतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते ॥

[13] णत्थि अणुदो अप्पं आयासादो अणूणयं णत्थि।

जह तह जाण महल्लं ण वयमहिंसासमं अत्थि ॥784॥

सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं।

लव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु ॥790॥  भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 784-790

[14] अहिंसा प्रथमो धर्मः सर्वेषामिति सन्मतिः।

ऋषिभिर्बहुधा गीतं सूनृतं तदनंतरम् ॥3॥  कुरल काव्य परिच्छेद 33/3

[15] तत्र अहिंसा व्रतमादौ क्रियते प्रधानत्वात्।

सत्यादीनि हि तत्परिपालनार्थादीनि सस्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत्।  सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/1/343/4, (राजवार्तिक अध्याय 7/1/6/534/1)

[16] आत्मपरिणामहिंसनं हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्।

अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥42॥

[17] सत्याद्युत्तरनिःशेषयमजातनिबंधनम्।

शीलैश्चर्याद्यधिष्ठानमहिंसाख्य महाव्रतम् ॥7॥

एतत्समयसर्वस्वमेतत्सिद्धान्तजीवितम्।

यज्जंतुजातरक्षार्थं भावशुद्ध्या दृढं व्रतम् ॥30॥

श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च।

अहिंसालक्षणो धर्मः तद्विपक्षश्च पातकम् ॥31॥

तपःश्रुतमयज्ञानध्यानदानादिकर्मणां।

सत्यशीलव्रतादीनामहिंसा जननी मता ॥42॥  ज्ञानार्णव अधिकार 8/7,30,31,42 , ( ज्ञानार्णव अधिकार 9/2)