प्राकृत व पाली साहित्य में वातवलय
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बहुमूल्य प्राचीन भारतीय साहित्य की समृद्ध परंपरा में प्राकृत साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। प्राकृत साहित्य
में अध्यात्म एवं दर्शन के साथ लोक का भी विस्तृत वर्णन किया गया है। अनंत आकाश के बहुमध्य भाग में लोक है
जिसमें छहों द्रव्य रहते हैं इस लोक के तीन भाग होने से इसकी तीनलोक संज्ञा है। इस सम्पूर्ण लोक को पुरूषाकार
माना गया है इस पुरूषाकार तीन लोक का आधार वातवलय हैं। लोक को सब ओर से घेरकर स्थित वायु के वलय
को वातवलय कहते हैं। ये तीन होते हैं। घनोदधि वातवलय, घनवातवलय और तनु वातवलय। इनमें घनोदधि गोमूत्र
के समान वर्ण वाला, घनवात मूंग के समान वर्ण वाला तथा तनुवात परस्पर मिले हुए अनेक वर्णों वाला है। ये तीनों
दंडाकार लंबे, घनीभूत, ऊपर, नीचे तथा लोक के चारों ओर स्थित हैं। वातवलयों का वविस्तृत वर्णन बहुमूल्य प्राकृत
साहित्य के तिल्लोयपण्णति, त्रिलोकसार, वियाहपण्णत्ति, बृहत् संग्रहणी, आदि ग्रंथों में मिलता है।